यह मंदिर चुन्नी शाह के जमीन के अंश भाग (उत्तरी दिशा) पर स्थापित है। जिसका निवास स्थान बक्शीपुर था। वे अक्सर अपनी धर्मपत्नी के साथ अपने जमीन पर जाया करते थे। इन्हे कोई पुत्र नही था, मात्र तीन पुत्रियाँ थी। एक बार अचानक वे काले रंग का एक पत्थर अपने जमीन पर पड़ा हुआ देखे और रात में स्वप्न मे भगवान दर्शन देकर कहे मैं शनिदेव हूँ, अपनी जमीन पर हमें स्थापित करो। मैं यहीं वास करना चाहता हूँ। जिससे मेरी धर्मपत्नी के अंदर यह इच्छा जागृत हुई की यह भगवान शनिदेव है, हमें उनकी आराधना पूजा करनी चाहिए, इससे हमारे दुख: दूर होंगे। इन्ही विचार के साथ वे लोग उस पिंडी को उसी स्थान पर स्थापित कर प्रतिदिन पूजा अर्चना करने लगे, धीरे-2 अन्य लोग भी आने लगे। तब वे सुरखी चुना से जोड़ कर एक छोटा सा मंदिर बनवा दिये। यह बात 1880-82 की हैं। उस समय गोरखपुर की आबादी बहुत कम थी तथा बहुत दूर-2 मकान थे, इस तरह से निरन्तर उनकी तपस्या करते हुये मेरी तीन पुत्रियों मे एक पुत्री सुखना धर्मपत्नी सहदेव को 1923 में एक पुत्री हुयी। उसी पुत्री को हम लोग भगवान शनिदेव का प्रसाद मानकर उसका लालन पालन एक पुत्र के रूप मे इस आशा के साथ किए की एक दिन अधिकारी बनकर हम लोगों की तपस्या को सफल करेगी। इस तरह यह कन्या बड़ी हुयी और मिडिल पास कर सी० टी० ट्रेनिंग की और तदउपरांत आर्यकन्या इंटर कॉलेज में अपनी सेवा एक अध्यापिका के रूप मे प्रारम्भ की, उसके बाद 1943-44 मे चुन्नी शाह एवं उनकी पत्नी सोमना का देहान्त हो गया। उसके पहले उनकी पुत्री सुखना का भी देहान्त हो चुका था।
केसरी देवी जो चुन्नी शाह की एक मात्र नातिन और सुखना की एक मात्र पुत्री थी वे ग्रेजुएट तक शिक्षा ग्रहण की और राजकीय विद्यालया गोरखपुर, बस्ती, गाजीपुर, देवरिया और आजमगढ़ में अपनी सेवा करते हुये परस्नातक की डिग्री हासिल की और अंत मे प्रधानाचार्य के पद से 1981 में सेवा निवृति हुयी। इस तरह से वे अपने नाना-नानी का स्वप्न पूरा की तथा आजीवन अविवाहित रही तथा 1947 में उन्होनें अपने पिता को भाई की प्राप्ति के लिए दूसरी शादी करने की जिद की और उनके पिता सहदेव प्रसाद ने अपनी पुत्री की इच्छा को पूरा करने के लिए राधिका देवी से शादी किए और भगवान शनिदेव महाराज की कृपा से इनके दो पुत्र ओमप्रकाश और चन्द्रप्रकाश हुये। अंत मे 1996 में केसरी देवीने अपने भाइयों से इच्छा वयक्त की, कि मैं इस मन्दिर के रख-रखाव तथा उत्थान हेतु तुम लोगो को लेकर एक ट्रस्ट कि स्थापना करना चाहती हूँ। मई 1996 मे अपने दोनों भाई ओमप्रकाश और चन्द्रप्रकाश को प्रमुख रूप से सम्मिलित करते हुये अन्य 10 लोगो का नाम दी।
जो इस प्रकार हैं – रामचन्द्र प्रसाद, अशोक कुमार (उपाध्यक्ष), राजकुमार, प्रेम कुमार, शम्भुनाथ गुप्ता, शम्भुनाथ आर्य, शिव गोपाल, ईश्वर लाल, गोरख प्रसाद का नाम डालकर शनिदेव मन्दिर ट्रस्ट कि स्थापना की। यह ट्रस्ट उनकी मृत्यु अक्टूबर 2001 के बाद वजूद मे आ गया। अपने जीवनकाल में ही 1996 में अपने भाई ओमप्रकाश तथा अशोक कुमार पुत्र स्व० श्री मनोहर लाल जी फोटोग्राफर के सौजन्य से नये मन्दिर का शिलान्यास करायी तथा 01 मई 2004 में मूर्ति स्थापना उनके भाई ओमप्रकाश तथा उनकी धर्मपत्नी मंजु देवी के माध्यम से की गयी। यह मन्दिर आज पूर्वान्चल में एक निजी पहचान बन चुका है। और निरन्तर प्रत्येक शनिवार को करीब 2000 से अधिक दर्शनार्थी आते हैं और उनकी मुरादे पूरी होती हैं। प्रत्येक वर्ष स्थापना दिवस 01 मई, श्रावणी पुजा माह के अंतिम शनिवार तथा प्रत्येक वर्ष पड़ने वाली शनि जयंती विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता हैं। जिसमे प्रसाद और भंडारे का भी आयोजन होता है और विभिन्न उत्सवो पर 5-6 हजार तक की भीड़ होती हैं। आज मन्दिर विशाल रूप मे बन चुका है, श्रद्धालु बड़े उमंग के साथ दान करते हैं और उनकी मुरादे जल्द ही पूरी होती हैं।